मीठी ईद के साथ ही रमजान की विदाई हो चुकी है। कोरोना महामारी की वजह से पिछले दो रमजान में लोगों को घर के भीतर रहकर ही त्योहार मनाना पड़ा था। लेकिन इस बार इफ्तार पार्टियों की रौनक पहले की तरह दिखी तो ईद पर भी लोग बिना किसी डर के एक दूसरे से गले लग सके। इफ्तार पार्टियों और इससे जुड़ी सियासत के चर्चे भी खूब हुए। हालांकि, हाल ही में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में सर्वाधिक मुस्लिम वोट पाने वाली समाजवादी पार्टी ने इस बार भी इफ्तार से परहेज किया। अब इसके मायने भी तलाशे जा रहे हैं।
दरअसल, कोरोना महामारी से पहले सपा हर साल इफ्तार पार्टी का आयोजन करती रही है। मुलायम सिंह यादव के दौर से चली आ रही परंपरा को अखिलेश भी बखूभी निभाते रहे। लेकिन कोरोना महामारी में इसका आयोजन नहीं हो पाया। इस संक्रमण के काबू में होने की वजह से उम्मीद की जा रही थी कि मुसलमानों के एकतरफा वोट पाने वाले अखिलेश यादव समुदाय के लिए शानदार इफ्तार का आयोजन करेंगे। लेकिन लोग इंतजार ही करते रह गए। हां, पार्टी के कुछ नेताओं की ओर से आयोजित इफ्तार में अखिलेश यादव ने शिरकत जरूर की। इफ्तार पार्टियों में अखिलेश के लिबास ने भी सबका ध्यान खींचा और पहले की तस्वीरों से तुलना की जा रही है। 2017 तक इफ्तार में वह जालीदार टोपी और परंपरागत इस्लामिक परिधान में दिखते थे, लेकिन इस बार सपा की लाल टोपी पहने ही नजर आए।
राजनीति के गलियारों में अब इस बात को लेकर खूब चर्चा है कि आखिर अखिलेश ने इफ्तार से क्यों परहेज किया? राजनीतिक जानकारों का मानना है कि अखिलेश ने किसी मजबूरी के तहत नहीं बल्कि सोची-समझी रणनीति के तहत इफ्तार से परहेज किया है। कहा जा रहा है कि परिस्थितिवश यूपी में इस समय मुसलमानों के लिए एकमात्र विकल्प बन चुके अखिलेश अपनी छवि को लेकर बेहद सतर्क हैं। माना जा रहा है कि हिंदुत्ववादी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से लड़ रहे अखिलेश यादव को ‘मुस्लिम परस्त’ छवि बनाए जाने का डर है और इस वजह से वह फूंक-फूंककर कदम रख रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकार राज बहादुर सिंह ने लाइव हिन्दुस्तान से बातचीत में कहा, ”सपा अध्यक्ष को एक तरफ तो प्रो-मुस्लिम दिखने पर ध्रुवीकरण का डर सता रहा है और दूसरी तरफ इनका मानना है कि मुसलमान बीजेपी को वोट करेंगे नहीं और विपक्षी खेमे में सपा ही अल्पसंख्यक वोटों की सबसे बड़ी दावेदार है।”
दशकों से यूपी की राजनीति को करीब से देखने वाले राज बहादुर सिंह कहते हैं कि कथित सेक्युलर पार्टियों के नेता अब मंदिरों में जाते हुए दिखते हैं और पूजा-पाठ का सार्वजनिक प्रदर्शन करते हैं। इसके जरिए वह दिखाने की कोशिश करते हैं कि हम गैर हिंदू या मुस्लिम परस्त नहीं हैं। पिछले कुछ सालों के चुनावों को देखकर एक समझ बनी है कि सिर्फ मुसलमानों और या जाति विशेष के वोट के दम पर ही सरकार नहीं बनाई जा सकती है। सत्ता में आने के लिए सभी वर्गों खासकर बहुसंख्यक हिंदुओं के एक बड़े वर्ग के समर्थन की आवश्यकता है। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वरिष्ठ पत्रकार ने यह भी कहा कि कांग्रेस और राहुल गांधी की तरह अखिलेश यादव भी सॉफ्ट हिंदुत्व का सहारा लेते दिख सकते हैं, जिसकी शुरुआत उन्होंने विधानसभा चुनाव के दौरान ही अयोध्या और हनुमानगढ़ी जाकर कर दी थी।