विधानसभा चुनाव में जाट समुदाय के मतदाता भी तमाम पार्टियों के साथ-साथ कांग्रेस और बीजेपी के लिए बड़ा वोट बैंक साबित होता आया है. लिहाजा इस बार के चुनाव में भी कांग्रेस और बीजेपी की निगाहें इन मतदाताओं पर ही रहने वाली है.
जयपुर:
राजस्थान में इस साल विधानसभा चुनाव होने हैं. इसे लेकर अभी से ही तैयारियां शुरू हो गई हैं. अलग-अलग समुदाय के लोग अपनी बिरादरी के वोट बैंक को अपने साथ रखने के लिए अभी से जुट गए हैं. इसी कड़ी में जयपुर में जाट समुदाय अपनी बिरादरी के लिए एक बड़ा ‘महाकुंभ’ का आयोजन करने जा रहा है.इस महाकुंभ के आयोजन का मुख्य उद्देश्य अपने मतदाताओं को चुनाव से पहले एकजुट रखना है. लेकिन सूत्रों के अनुसार समुदाय द्वारा आयोजित किए जाने वाले इस ‘महाकुंभ’ से समुदाय के कई बड़े नेता गायब रह सकते हैं. बड़े नामों के गायब रहने को समुदाय में फूट की तरह भी देखा जा रहा है. हालांकि, महाकुंभ से कई बड़े नामों के दूर रहने की वजह को लेकर जाट समुदाय की तरफ से कुछ साफ तौर पर नहीं कहा गया है.
बता दें कि विधानसभा चुनाव में जाट समुदाय के मतदाता भी तमाम पार्टियों के साथ-साथ कांग्रेस और बीजेपी के लिए बड़ा वोट बैंक साबित होता आया है. लिहाजा इस बार के चुनाव में भी कांग्रेस और बीजेपी की निगाहें इन मतदाताओं पर ही रहने वाली है.
जाट मतदाता आखिर कितने महत्वपूर्ण हैं ?
राजस्थान की राजनीति में जाट समुदाय के एक बड़ा योगदान रहा है.ऐसा देखा गया है कि इस समुदाय के मतों की बदोलत ही चुनाव के परिणाम को भी बदला जा सकता है. हालांकि आजादी के बाद से काफी समय तक जाटों का रुझान कांग्रेस की तरफ ज्यादा देखा गया है. लेकिन 1999 में अटल बिहारी सरकार ने जैसे ही उन्हें ओबीसी कैटेगरी के तहत आरक्षण दिया , उसके बाद से ही वो बीजेपी के पक्ष में चले गए. इसके बाद के दो दशक में जाटों ने मुख्य रूप से बीजेपी का ही समर्थन किया.
लेकिन 2018 के राज्य चुनावों से पहले, जाट नेताओं ने शिकायत की कि समुदाय को उसका हक नहीं मिला. इसके बाद बीजेपी को लेकर नाराजगी की सुगबुगाहट तेज हो गई. जाट समुदाय ने राज्य में जाट मुख्यमंत्री की भी मांग उठाई. बढ़ते गतिरोध को देखते हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने खुद को ‘जाट की बहू’ के रूप में पेश किया. और भाजपा की संभावनाओं को उबारने की कोशिश भी की, लेकिन इसका फायदा उन्हें चुनाव परिणाम में नहीं मिल पाया.
राज्य में जिन 30 सीटों पर जाटों का प्रभाव है उनमें से 18 सीटें कांग्रेस ने जीतीं. और इन सीटों पर जीत के साथ ही अशोक गहलोत सत्ता तक फिर पहुंच पाए.
अब क्या बदला है
2018 के चुनावों के बाद भाजपा के पूर्व नेता हनुमान बेनीवाल का उदय भी हुआ, जिन्होंने बाद में अपना संगठन बनाया. बाद में उन्होंने बीजेपी से गठबंधन किया. 2020 में, जब कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का विरोध तेज हुआ तो जाट नेता ने खुदको एनडीए से बाहर कर लिया. इसके बाद उन्होंने कहा कि किसानों के हितों से ज्यादा महत्वपूर्ण कोई गठबंधन नहीं है.
खास बात ये है कि इस बार जयपुर में होने जा रहे जाट महाकुंभ में बेनीवाल शामिल नहीं हो रहे हैं. इस आयोजन से उनके दूर रहने से इस तरह की आशंकाएं लगाई जा रही हैं कि जाट समुदाय के अंदर सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है और समुदाय में फूंट पड़ गई है.
कांग्रेस के लिए क्या है चुनौती
राज्य के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व डिप्टी सीएम सचिन पायलट के बीच चल रही खींचतान के बीच पार्टी के लिए यूनाइटेड फ्रंट को सबके सामने पेश करने में खासी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है. सचिन पायलट, जिनके 2020 में किए गए विरोध की वजह से कांग्रेस की सरकार की संकट में आ गई थी, खुद गुर्जर समुदाय से आते हैं. राज्य में जाटों के बाद गुर्जर समुदाय का भी दबदबा है. सचिन पायलट कांग्रेस के लिए बीते कुछ समय से जाट बहुल इलाकों का दौरा कर रहे हैं.
जबकि कांग्रेस रैलियों को राजनीतिक आउटरीच के रूप में पेश कर रही है, संगठन के भीतर एक जाट समर्थन आधार भी सचिन पायलट को अधिक राजनीतिक ताकत प्रदान कर सकता है. वहीं, सीएम अशोक गहलोत जिन्होंने पहले कहा था कि सीएम बनने के लिए किसी जाति विशेष से होना जरूरी नहीं है, अब चुनाव नजदीक आने के बाद जाट समुदाय तक पहुंच रहे हैं.
BJP का क्या है गेमप्लान
कांग्रेस की तरह ही बीजेपी के लिए भी चुनाव जीतने का रास्ता उतना आसान नहीं दिख रहा है. पार्टी भी इन दिनों पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और मौजूदा केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत के बीच खींचतान से जूझ रही है. राजे के समर्थकों ने उनके जन्मदिन को शक्तिप्रदर्शन का रूप दे दिया. बीजेपी की वरिष्ठ नेता धौलपुर से आती हैं. धौलपुर जाटों के सबसे बड़े गढ़ में से एक है. बीजेपी की सत्ता के लिए जाट वोटों का एकजुट होना अहम होगा. समुदाय के वोटों में संभावित विभाजन के लिए बीजेपी को बेनीवाल सहित व्यक्तिगत नेताओं तक पहुंचना होगा. जो फिलहाल एनडीए से बाहर हैं.