एक ही सफ़ में खड़े हो गए महमूद-ओ-अयाज़,
ना कोई बंदा रहा ना कोई बंदा नवाज़.
उर्दू के मशहूर शायर अल्लामा इक़बाल (1877-1938) के इस शेर का अर्थ है कि महमूद ग़ज़नवी (971-1030 ईस्वी) और उनके ग़ुलाम अयाज़, जब नमाज़ पढ़ने के लिए खड़े होते हैं तो दोनों एक ही लाइन में होते हैं. यानी न तो उस समय कोई बादशाह होता है और न ही कोई ग़ुलाम.
इक़बाल इस शेर के ज़रिए यह बताने की कोशिश करते हैं कि इस्लाम धर्म के सभी मानने वाले बराबर हैं और उनमें किसी प्रकार की कोई ऊंच-नीच नहीं है.
लेकिन क्या सच में मुस्लिम समाज ऐसा है, जहां कोई जाति नहीं, कोई भेदभाव नहीं और सभी बराबर हैं?