Russia Victory Day Indian Army: रूस आज जर्मन तानाशाह एडोल्फ हिटलर की सेना पर शानदार जीत की याद में विक्ट्री डे या विजय दिवस मना रहा है। इस जंग में ब्रिटिश भारतीय सैनिकों ने सोवियत संघ की लाल सेना के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया था। भारत के 8 हजार से ज्यादा लोगों ने दुनिया के 15 देशों के लोगों के साथ मिलकर 5 हजार किमी लंबी सड़क बनाई थी।
रूस के नई दिल्ली स्थिति दूतावास के मुताबिक ब्रिटिश शासन के दौर में भारत ने दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान पश्चिमी और पूर्वी मोर्चे पर सबसे बड़ी वालंटियर आर्मी भेजी थी। भारतीय सेना ने हिटलर की नाजी सेना के खिलाफ सोवियत सेना के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया था। भारतीय सैनिकों ने इराक के रास्ते सोवियत संघ की लाल सेना को हथियार और रसद की आपूर्ति की थी। भारतीय सेना की इसी दिलेरी की वजह से सोवियत संघ ने दो भारतीय जवानों बेंगलुरु के नराला हाथी गांव के रहने वाले सूबेदार नारायण राव और उत्तराखंड के पिथौरगढ़ के रहने वाले हवलदार गजेंद्र सिंह को ‘रेड स्टार’ मेडल से नवाजा था। ये दोनों ही ब्रिटिश भारतीय सेना के सप्लाइ कोर में तैनात थे और इस दौरान उन्होंने अपने जान की बाजी लगा दी थी।
गजेंद्र सिंह के बेटे भगवान सिंह के मुताबिक, ‘उनके पिता को साल 1936 में ब्रिटिश भारतीय सेना में शामिल किया गया था। मेरे पिता ने हमें बताया था कि उन्हें चकवाल (रावलपिंडी पाकिस्तान ) भेजा गया था जहां उन्हें ट्रेनिंग दी गई। इसके बाद उन्हें रॉयल इंडियन आर्मी सर्विस कोर में तैनात किया गया था। मेरे पिता ने ज्यादातर समय वर्तमान पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रांत में बिताया।’ भगवान सिंह ने बताया, ‘मेरे पिता ने मुझे बताया था कि जब दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हुआ, वह इराक के बसरा में तैनात थे। वह ब्रिटेन की सदस्यता वाले गठबंधन सेना का हिस्सा थे। उन्हें बेहद खराब इलाके में सोवियत सैनिकों को हथियार और रसद की आपूर्ति करने के लिए तैनात किया गया था।’
इस रास्ते में तपते हुए रेगिस्तान, सैंकड़ों किमी तक खाली इलाका, 7000 फुट ऊंचा पहाड़ी दर्रा और बर्फीला इलाका पड़ता था। भारतीय सैनिकों ने भारत और सोवियत संघ के बीच एक बेहद अहम सप्लाइ रास्ता तैयार किया। भारतीय सैनिक पेशावर के रास्ते ईरान-सोवियत सीमा तक पहुंचे। इस दौरान उन्हें युद्ध के मोर्चे तक पहुंचने में एक सप्ताह लग जाता था। भारत और सोवियत संघ के बीच रास्ता तैयार करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने 30000 से ज्यादा मजदूरों को काम पर लगाया था। इसमें 15 देशों के पुरुष और महिलाएं शामिल थीं। इस तरह से सड़क के रास्ते सोवियत सैनिकों को सैन्य मदद मुहैया कराई गई। इस रास्ते को उस समय पूर्वी फारस रास्ता कहा जाता था। इस पूरे रास्ते को 8 महीने में पूरा किया गया। हर दिन करीब 5 किमी का रास्ता तैयार किया गया।
भारत के सैनिकों ने जूट, रबर, तांबा और मरकरी भेजा था। इसको भेजने के लिए 1 हजार से ज्यादा लॉरी लगाई थी जिसमें से ज्यादातर को भारत की ओर से मुहैया कराया गया था। इस रास्ते में कई नदियां थीं, इस वजह से हजारों की तादाद में पुल भी रास्ते में बनाए गए थे। पूरा सामान ऊंटों की मदद से सड़क के रास्ते ले जाया गया था। सोवियत सेना को मदद देने के लिए भारतीयों के अलावा यूनान, यूगोस्लाविया, बेल्जियम, रूस, तुर्की, इटली, बुल्गारिया, फारस के लोग भी आए थे। भारतीय सैनिकों की इसी दिलेरी को अब रूस की पुतिन सरकार ने सलाम किया है। भारत में रूसी दूतावास ने कहा है कि वह नाजी जर्मनी को हराने में भारतीयों के योगदान को कभी नहीं भूलेगा। द्वितीय विश्वयुद्ध सोवियत संघ के लिए कितना विनाशक था, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यूएसएसआर के 2 करोड़ 70 लाख लोग मारे गए थे जो किसी अन्य देश से ज्यादा है।