किसी भी फिल्म के रिलीज होने के बाद थियेटर हाउसफुल बताए जाते हैं. जबकि कई बार थियेटर खाली पड़े रहते हैं. इसकी वजह कई बार ये होती है कि कुछ टिकटें बची होने पर खुद ही टिकट खरीद लेते हैं.
नई दिल्ली:
ऑर्गेनिक बुकिंग और कॉरपोरेट बुकिंग में क्या अंतर है. क्या ये अपनी फिल्म के कलेक्शन को बढ़ा चढ़ा कर बताने का फिल्म मेकर्स का कोई पैंतरा है. ये सवाल हाल ही में तब उठा जब शाहरुख खान की ‘जवान’ से जुड़ी कुछ जानकारी सोशल मीडिया पर दे रहे थे जिसमें एडवांस बुकिंग के बारे में भी डिटेल बताई जा रही थी. इस पोस्ट पर एक फैन ने सवाल किया कि ये ऑर्गेनिक बुकिंग है या फिर कॉरपोरेट बुकिंग जिसके बाद से सवाल उठ रहे हैं कि कॉरपोरेट बुकिंग आखिर होती क्या हैं.
क्या होती है कॉरपोरेट बुकिंग?
किसी भी फिल्म के रिलीज होने के बाद थियेटर हाउसफुल बताए जाते हैं. जबकि कई बार थियेटर खाली पड़े रहते हैं. इसकी वजह कई बार ये होती है कि कुछ टिकटें बची होने पर खुद ही टिकट खरीद लेते हैं. कई बार किसी ब्रांड के जरिए या फिर फिल्म के प्रोडक्शन हाउस बल्क में टिकट बुक करते हैं. उसे कॉरपोरेट बुकिंग कहा जाता है. इस तरह की बुकिंग एक साथ कई शहरों में की जाती है जो बड़ी तादाद में भी होती है. इसके अलावा ब्लॉक बुकिंग भी होती है जो एक शहर तक ही सीमित हो सकती है. अक्सर फैन क्लब, कम्यूनिटी या फैमिली ग्रुप इस तरह की बुकिंग करवाता है. प्रोडक्शन हाउस के ही ऐसा करने पर ये घाटे का सौदा नजर आता है. जबकि असल खेल इस स्ट्रेटजी के अंदर छिपा होता है.
कैसे फायदेमंद है ये ट्रेंड?
ये ट्रेंड फिल्म के लिए फायदेमंद है या फिर घाटे का सौदा. ये एक अलग सवाल है. अक्सर किसी भी स्टार की इमेज बिल्डअप के लिए प्रोडक्शन हाउस इस तरह के पैंतरे आजमाते हैं. ब्रांड वैल्यू बढ़ने पर दर्शकों के बीच भी फिल्म का एक्सटाइटमेंट बढ़ता है. इसके बाद थियेटर में फुटफॉल बढ़ने की संभावना बढ़ जाती है. इसलिए फिल्म के कलेक्शन को बढ़ा चढ़ा कर पेश करने के लिए ज्यादा टिकट बुक दिखाए जाते हैं. थियेटर खाली हो तो भी उसके टिकट खरीद कर उसे हाउसफुल डिक्लेयर किया जाता है.